नयी दिल्ली, 12 सितंबर (ए) उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून संबंधी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को मंगलवार को कम से कम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया।.
इससे एक महीने पहले ही केंद्र सरकार ने औपनिवेशिक काल के इन कानूनों को बदलने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाया था और आईपीसी, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेने के लिए संसद में विधेयक पेश किए थे। इनमें राजद्रोह कानून को रद्द करने सहित अन्य बदलावों का प्रस्ताव किया गया है।.
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने वृहद पीठ को मामला सौंपने का फैसला टालने के केंद्र के अनुरोध को खारिज कर दिया। केंद्र ने दलील दी थी कि संसद आईपीसी के प्रावधानों को नये तरीके से लागू कर रही है और इस बाबत एक विधेयक स्थायी समिति के समक्ष रखा गया है।
न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी इस पीठ में शामिल हैं।
न्यायालय ने कहा कि यह मानते हुए कि विधेयक, जो अन्य बातों के अलावा राजद्रोह कानून को निरस्त करने और अपराध की व्यापक परिभाषा के साथ एक नया प्रावधान पेश करने का प्रस्ताव करता है, यदि एक कानून बन जाता है, तो इसे पूर्व प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता है।
पीठ ने कहा, ‘‘हम इन मामलों में संवैधानिक चुनौती पर सुनवाई को टालने का अनुरोध कई कारणों से स्वीकार करने के इच्छुक नहीं है।’’
इसने कहा कि आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) कानून की किताब में बरकरार है और नया विधेयक भले ही कानून बन जाए, तो भी यह धारणा है कि कोई भी नया दंडात्मक कानून पूर्व प्रभाव से नहीं, बल्कि भविष्य में लागू होगा।
न्यायालय ने याचिकाओं को वृहद पीठ के पास भेजना टाले जाने संबंधी अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के अनुरोध का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘किसी भी तरह से हम एक नये कानून के आधार पर 124ए की संवैधानिकता पर गौर करने की अनदेखी नहीं कर सकते।’’
पीठ ने कहा कि ‘केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार, 1962’ के फैसले में आईपीसी की धारा 124ए की संवैधानिक वैधता की समीक्षा शीर्ष न्यायालय ने इस दलील के आधार पर की थी कि यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के अनुसार नहीं है।
अनुच्छेद 19(1) (ए) वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित है।
वर्ष 1962 के फैसले में धारा 124ए की संवैधानिकता को बरकरार रखा गया था और इसे अनुच्छेद 19(1)(ए) के अनुरूप माना गया था।
पीठ ने 1962 के फैसले का जिक्र करते हुए कहा, ”हमारे पास पांच न्यायाधीशों की पीठ का एक फैसला है।”
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए एक और वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायण ने कहा कि यदि नया कानून लागू हो भी जाता है तो भी इसे पूर्व प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता।
इससे पहले, न्यायालय ने इन याचिकाओं पर सुनवाई केंद्र के यह कहने के बाद एक मई को टाल दी थी कि सरकार दंडात्मक प्रावधान की पुन: समीक्षा पर परामर्श के अग्रिम चरण में है।
इसके बाद केंद्र सरकार ने 11 अगस्त को औपनिवेशिक काल के इन कानूनों को बदलने के लिए ऐतिहासिक कदम उठाते हुए आईपीसी, सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेने के लिए लोकसभा में तीन नये विधेयक पेश किए। इसमें राजद्रोह कानून को रद्द करने और अपराध की व्यापक परिभाषा के साथ नए प्रावधान लागू करने की बात की गई है।
शीर्ष अदालत ने पिछले साल 11 मई को एक ऐतिहासिक आदेश में इस दंडात्मक कानून पर तब तक के लिए रोक लगा दी थी जब तक कि ‘‘उपयुक्त’’ सरकारी मंच इसकी समीक्षा नहीं करता। उसने केंद्र और राज्यों को इस कानून के तहत कोई नयी प्राथमिकी दर्ज नहीं करने का निर्देश दिया