कैदियों को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है : सुप्रीम कोर्ट

राष्ट्रीय
Spread the love

नयी दिल्ली, चार अक्टूबर (ए) उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि कैदियों को भी गरिमा के साथ जीने का अधिकार है और कैदियों को इस अधिकार से वंचित रखना ‘‘उपनिवेशवादी एवं पूर्व-औपनिवेशिक तंत्र की याद’’ दिलाता है।

प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने बृहस्पतिवार को यह टिप्पणी उस वक्त की जब न्यायालय ने जेलों में कैदियों के बीच जाति के आधार पर काम के बंटवारे, अलग अलग बैरक की व्यवस्था और गैर अधिसूचित जनजातियों एवं आदतन अपराधियों को लेकर पूर्वाग्रह पर रोक के संबंध में अपना फैसला सुनाया।शीर्ष अदालत ने उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश समेत 10 राज्यों की जेल नियमावली में आपत्तिजनक नियमों को असंवैधानिक करार दिया।

प्रधान न्यायाधीश ने पीठ की ओर से 148 पृष्ठों का फैसला लिखते हुए संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन), 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और 23 (जबरन श्रम के खिलाफ अधिकार) के तहत मौलिक अधिकारों पर चर्चा की।

न्यायालय ने अनुच्छेद 21 का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘गरिमा के साथ जीने का अधिकार कैदियों पर भी लागू होता है। कैदियों को सम्मान नहीं देना उपनिवेशवादी और पूर्व-औपनिवेशिक तंत्रों की याद दिलाता है, जहां राष्ट्र के अधीन रहने वालों के साथ अमानवीय व्यवहार तथा उन्हें अपमानित करने के लिए दमनकारी प्रणालियां तैयार की गई थीं।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘संविधान लागू होने से पूर्व के शासन ने जेलों को न केवल कैद रखने के स्थान के रूप में देखा, बल्कि वर्चस्व के साधन के रूप में भी देखा। इस न्यायालय ने संविधान द्वारा लाए गए बदले हुए कानूनी ढांचे पर ध्यान केंद्रित करते हुए माना है कि कैदियों को भी गरिमा के साथ जीने का अधिकार है।’’

अनुच्छेद 14 के संबंध में न्यायालय ने कहा कि राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के राज्यक्षेत्र में कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा तथा समानता संवैधानिक दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

उन्होंने कहा, ‘‘अनुच्छेद 14 के तहत न्यायालय द्वारा निर्धारित संवैधानिक मानकों को इस प्रकार संक्षेप में प्रस्तुत किया जा सकता है। सबसे पहले, अगर इसमें स्पष्ट अंतर है और वांछित उद्देश्य के साथ उचित संबंध है तो संविधान वर्गीकरण की अनुमति देता है। दूसरा, केवल निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए वर्गीकरण परीक्षण को गणितीय सूत्र के रूप में लागू नहीं किया जा सकता है…।’’

इसके बाद फैसले में अनुच्छेद 15 पर बात की गई जो जाति, नस्ल, धर्म, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।

न्यायालय ने कहा, ‘‘अगर राज्य स्वयं किसी नागरिक के विरुद्ध किसी भी आधार पर भेदभाव करता है, तो यह सर्वोच्च स्तर का भेदभाव है। आखिरकार, राज्य से भेदभाव को रोकने की अपेक्षा की जाती है न कि उसे कायम रखने की। इसलिए हमारा संविधान राज्य को किसी भी नागरिक के विरुद्ध भेदभाव करने से रोकता है।’’

शीर्ष अदालत ने कहा कि भेदभाव निषिद्ध है, क्योंकि इसका मानव जीवन पर कई तरह से प्रभाव पड़ता है और यह किसी व्यक्ति या समूह के प्रति श्रेष्ठता या हीनता, पूर्वाग्रह, अवमानना ​​या घृणा की भावना के कारण उत्पन्न होता है।प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘इतिहास में इस तरह की भावनाओं ने कुछ समुदायों के नरसंहार को जन्म दिया। जिस व्यक्ति के साथ भेदभाव किया जाता है, इससे उसके आत्म-सम्मान को भी ठेस पहुंचती है। यह अवसरों के अनुचित हनन और लोगों के एक समूह के खिलाफ निरंतर हिंसा का कारण बन सकता है। समाज के वंचित वर्ग से किसी व्यक्ति का लगातार उपहास उड़ाकर या अपमानित करके भी भेदभाव किया जा सकता है। यह उस व्यक्ति के लिए बहुत पीड़ादायक होता है जो आजीवन उसे प्रभावित कर सकता है।’’

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘भारत के संविधान के लागू होने से पहले बनाए गए भेदभावपूर्ण कानूनों की जांच की जानी चाहिए और उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए।’’न्यायालय ने अनुच्छेद 17 पर कहा कि यह अस्पृश्यता को प्रतिबंधित करता है और किसी भी रूप में इसका प्रचलन निषिद्ध है।

पीठ ने कहा कि ‘‘अस्पृश्यता’’ की वजह से किसी को भी अयोग्य ठहराना कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा और इस प्रावधान का संविधान में विशेष स्थान है क्योंकि यह सामाजिक रूप से भेदभाव के चलन को समाप्त करता है।

पीठ ने कहा, ‘‘अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि सभी लोग जन्म से समान होते हैं। किसी भी व्यक्ति के अस्तित्व, उसके छूने या उसकी मौजूदगी को लेकर राय बनाना गलत है। अनुच्छेद 17 के माध्यम से हमारा संविधान हर नागरिक के समानता के दर्जे को मजबूती प्रदान करता है…।’’

शीर्ष अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 21 में निहित जीवन का अधिकार गरिमापूर्ण जीवन जीने की बात करता है। इसमें सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है और वास्तव में सम्मान संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है।

पीठ ने कहा, ‘‘मानव गरिमा उसके अस्तित्व का अभिन्न अंग है और उसे उससे दूर नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 21 के तहत इस अधिकार में ‘यातना या क्रूरता, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार’ निहित है।’’

इसके बाद न्यायालय ने अनुच्छेद 23 पर टिप्पणी की जो जबरन श्रम और मानव तस्करी के निषेध से संबंधित है और कहा कि ऐसे जेल नियमों की अनुमति देकर राज्य अपराध का हिस्सा बन रहे हैं।