नयी दिल्ली,28 दिसंबर (ए)।दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक फैसले में कहा कि दोषी के जीवन के अधिकार में प्रजनन करने का अधिकार भी शामिल है। इसी के साथ अदालत ने 41 वर्षीय हत्या के दोषी और उम्र कैद की सजा काट रहे व्यक्ति को चार सप्ताह का पैरोल दे दिया ताकि वह अपनी 38 वर्षीय पत्नी से चिकित्सा प्रक्रिया के जरिये संतान उत्पत्ति कर सके।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि केवल निरुद्ध करने भर से दोषी दोयम दर्जे का नागरिक नहीं हो जाता और मौजूदा मामले में जहां दोषी और उसके जीवनसाथी का ‘जैव चक्र’ सजा पूरा होने के बाद गर्भधारण करने में बाधा बन जाएगा, ऐसे में बच्चे पैदा करने के मौलिक अधिकार का ‘राज्य के हित में त्याग नहीं किया जा सकता।’न्यायमूर्ति शर्मा ने हालिया फैसले में कहा, ‘‘ दोषी को निरुद्ध करने की वजह से जैविक प्रक्रिया से संतान उत्पत्ति में देरी का अभिप्राय है माता-पिता बनने के मौलिक अधिकार से वंचित करना। इस अदालत की राय में, किसी दिए गए मामले के कुछ तथ्यों और परिस्थितियों में, वर्तमान मामले की तरह, संतान पैदा करने का अधिकार कारावास के बावजूद भी बना रहता है।’’
अदालत ने कहा, ‘‘ इस अदालत को यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में एक दोषी का बच्चा पैदा करने का अधिकार भी शामिल होगा। उसके (याचिकाकार्ता के) पास जैविक संतान नहीं है और इस उद्देश्य के लिए पैरोल की राहत बढ़ाई जाती है क्योंकि उसे चिकित्सा सहायता की आवश्यकता है और उसकी उम्र के कारण जैविक चक्र कमजोर हो सकता है और संतान उत्पन्न करने की संभावनाएं धूमिल हो सकती हैं।’’
अदालत ने स्पष्ट किया कि वह वैवाहिक संबंध और वैवाहिक अधिकारों को बनाए रखने के उद्देश्य से पैरोल देने के मुद्दे से नहीं निपट रही है, बल्कि जेल नियमों के अनुसार बच्चा पैदा करने के लिए आवश्यक इलाज कराने के एक दोषी के मौलिक अधिकार पर सुनवाई कर रही है।
मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता गत 14 साल से कारावास में है और उसने इस आधार पर पैरोल देने का अनुरोध किया था कि वह और उसकी पत्नी अपने वंश को बचाना चाहते हैं और इसलिए विट्रो फर्टेलाइजेशन (आईवीएफ) के तहत चिकित्सा जांच के इच्छुक हैं।